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संत कबीर जी के दोहे — 351 to 400

संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।३५१।।

अर्थ: संतों की संगति कभी निष्फल नहीं होती। जैसे लोहा पारस की छाया से सोना बन जाता है।।

Meaning: Association with saints is never futile. Just as iron turns to gold when touched by the philosopher's stone.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने संतों की संगति की अनमोलता और उसके प्रभाव को वर्णित किया है। जैसे पारस की छाया से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही संतों की संगति से व्यक्ति के जीवन में गुण और सत्य का विकास होता है। संतों की संगति से कभी भी बुरा परिणाम नहीं होता, बल्कि यह हमेशा सकारात्मक बदलाव लाती है।


मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त।।३५२।।

अर्थ: जो संत सम्मान या अपमान से परे रहता है, वही सच्चा शीतल है। ऐसा संत भव सागर से पार हो चुका है और काल के दांतों से अप्रभावित है।।

Meaning: A saint who is neither honored nor dishonored is truly calm. Such a saint has crossed the ocean of worldly existence and is unaffected by the teeth of time.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने सच्चे संत की विशेषताओं को बताया है। एक सच्चा संत सम्मान और अपमान से परे होता है और उसकी शीतलता उसकी संतुलित स्थिति को दर्शाती है। वह व्यक्ति जो सांसारिक जीवन की समस्याओं और समय की परेशानियों से ऊपर उठ चुका होता है।


दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव।
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव।।३५३।।

अर्थ: दया, गरीबी, भक्ति, समता और अच्छा स्वभाव—ये साधु के लक्षण हैं, कबीर कहते हैं।।

Meaning: Compassion, humility, devotion, equality, and good nature—these are the qualities of a saint, says Kabir.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने साधु के गुणों का वर्णन किया है। साधु की पहचान दया, गरीबी (स्वयं को अनासक्त रखना), भक्ति, समानता और अच्छे स्वभाव से होती है। ये गुण साधु के चरित्र की पहचान हैं और उसकी सच्चाई को दर्शाते हैं।


सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त।।३५४।।

अर्थ: वो दिन चले गए जब संतों की संगति आम बात थी। ज्ञान के बिना जीवन पशुओं जैसा होता है और भक्ति के बिना व्यक्ति भटका हुआ होता है।।

Meaning: Those days are gone when association with saints was common. Without knowledge, life is like that of an animal, and without devotion, one is lost.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने संतों की संगति के महत्व को बताया है और वर्तमान समय की स्थिति को व्यक्त किया है। बिना ज्ञान के जीवन पशुओं जैसा हो जाता है, और बिना भक्ति के व्यक्ति अपने जीवन में मार्गदर्शन के बिना भटकता रहता है। कबीर यह बताना चाहते हैं कि संतों की संगति और भक्ति का महत्व अब कम हो गया है।


यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय।।३५५।।

अर्थ: यह कलियुग आ चुका है, और कोई भी सच्चे साधुओं को नहीं जानता। कामी, क्रोधी और मूर्ख लोग पूजा जाते हैं।।

Meaning: This age of Kali has arrived, and no one knows the true saints. The lustful, angry, and foolish are worshipped instead.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने कलियुग के समय की स्थिति का वर्णन किया है। इस युग में लोग सच्चे साधुओं को पहचानने में असमर्थ हैं और उनकी पूजा करने की बजाय कामी, क्रोधी और मूर्ख लोगों की पूजा की जाती है। यह दोहा समाज में परिवर्तन और भ्रामक मान्यताओं को दर्शाता है।


सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर।।३५६।।

अर्थ: संत का व्यवहार गजराज के समान होता है, जो बंधनों से मुक्त चलता है। दुनिया के कुत्ते पीछे चलते हैं, लेकिन उनकी आवाज नहीं सुनते।।

Meaning: A saint's behavior is like that of an elephant, who walks free from bonds. The world’s dogs may follow, but they do not heed the noise.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने संतों के व्यवहार की तुलना गजराज (हाथी) से की है। जैसे गजराज बंधनों से मुक्त होकर चलता है, वैसे ही संत भी सांसारिक बंधनों से मुक्त होते हैं। दुनिया के लोग, जो स्वार्थी और कुत्तों जैसे होते हैं, संत की आंतरिक शांति और स्वतंत्रता को नहीं समझ पाते।


साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब।।३५७।।

अर्थ: संत ऐसा होना चाहिए, जिसकी उपस्थिति अदृश्य हो और जिसकी वाणी में करोड़ों दोषों का विस्तार हो।।

Meaning: A saint should be one whose presence is hidden, and whose speech covers countless faults.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने एक सच्चे संत की पहचान की बात की है। एक संत ऐसा होना चाहिए जिसकी उपस्थिति छुपी हुई हो और जिसकी वाणी इतनी प्रभावशाली हो कि वह किसी भी दोष को ढक सके। संत की वास्तविक पहचान उसकी बाहरी उपस्थिति से नहीं, बल्कि उसकी गहरी और प्रभावशाली वाणी से होती है।


सन्त होत हैं हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय।।३५८।।

अर्थ: संत अपने उद्देश्य के अनुसार कार्य करते हैं, और जब उनका उद्देश्य पूरा हो जाता है, वे आगे बढ़ जाते हैं। कबीर कहते हैं, बिना उद्देश्य के, आवश्यकता की बात कौन मानेगा।।

Meaning: Saints act according to their purpose, and once their purpose is served, they move on. Kabir says, without purpose, who will believe in the need?

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने संतों के उद्देश्य और उनकी कार्यप्रणाली की बात की है। संत अपने उद्देश्य की पूर्ति के बाद आगे बढ़ जाते हैं, और बिना किसी उद्देश्य के कोई भी आवश्यकता को नहीं समझेगा। यह दोहा यह भी दर्शाता है कि संतों का कार्य केवल उद्देश्यपूर्ण होता है, न कि अकारण।


हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय।
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय।।३५९।।

अर्थ: उद्देश्य के बिना कुछ भी नहीं आता; उद्देश्य के साथ सब कुछ हो जाता है। कबीर कहते हैं कि जैसे पानी और संत एक स्थान पर नहीं रुकते, वे आगे बढ़ जाते हैं।।

Meaning: Without purpose, nothing comes; with purpose, everything happens. Kabir says that just as water and saints do not stay in one place, they move on.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने उद्देश्य के महत्व को बताया है। बिना किसी उद्देश्य के चीजें स्थिर नहीं रहतीं, लेकिन उद्देश्य के साथ सब कुछ संभव हो जाता है। कबीर ने पानी और संतों की तुलना से यह समझाया है कि वे हमेशा गतिशील और अपने उद्देश्य की दिशा में चलते हैं।


साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग।।३६०।।

अर्थ: संत ऐसा होना चाहिए, जो सभी मांगों को पूरा करे और विपत्ति में भी न छोड़े। ऐसा संत की उपस्थिति अमीर और चौगुना रंग बढ़ा देती है।।

Meaning: A saint should be one who fulfills all requests and does not abandon even in adversity. Such a saint's presence enriches and multiplies.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने सच्चे संत की विशेषताओं का वर्णन किया है। एक सच्चा संत वह होता है जो किसी भी मांग को पूरा करता है और विपत्ति के समय भी किसी को नहीं छोड़ता। उसकी उपस्थिति से व्यक्ति की स्थिति में गुणात्मक और गुणात्मक वृद्धि होती है। यह दोहा यह भी बताता है कि संत की सच्ची सेवा का प्रभाव बहुत बड़ा और गुणकारी होता है।


सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग।।३६१।।

अर्थ: संत की सेवा, गुरु की भक्ति और गुरु की याद से वैराग्य की प्राप्ति होती है। ये तब प्राप्त होते हैं जब कोई पूर्ण भाग्यशाली होता है।।

Meaning: Service to saints, devotion to the guru, and remembrance of the guru lead to renunciation. These are achieved when one is truly blessed.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने संतों की सेवा, गुरु की भक्ति और गुरु की याद को वैराग्य की प्राप्ति का मार्ग बताया है। यह सब पूर्ण भाग्यशाली होने पर ही संभव होता है। कबीर ने यह बताने का प्रयास किया है कि संतों और गुरु के प्रति सच्ची भक्ति और सेवा से आध्यात्मिक उन्नति और वैराग्य की प्राप्ति होती है।


चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस।।३६२।।

अर्थ: हंस की चाल सुंदर होती है, लेकिन उसे हंस ही कहा जाता है। जो लोग काल के बंधनों में फंसे हैं, वे कैसे मुक्त हो सकते हैं।।

Meaning: The walk of a swan is elegant, but it is still called a duck. How can those who are bound by the traps of time be truly liberated?

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने समय की बंधनों में फंसे हुए लोगों की स्थिति को दर्शाया है। भले ही कोई बाहरी रूप से सुंदर और उत्कृष्ट प्रतीत होता है, अगर वह काल के बंधनों में फंसा हुआ है, तो उसकी मुक्ति संभव नहीं होती। यह दोहा इस बात को उजागर करता है कि वास्तविक मुक्ति और आंतरिक शांति तभी संभव होती है जब व्यक्ति काल के बंधनों से मुक्त हो जाए।


साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार।।३६३।।

अर्थ: कोई अगर संत बन जाए, चार मोतियों की माला पहन ले। बाहरी तौर पर एक रूप धारण कर ले, लेकिन अंदर पूरी तरह से बकवास भरी हो।।

Meaning: What if one becomes a saint, wearing a garland of four beads? Externally adopting a disguise, but filled with rubbish inside.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने वास्तविक संत की असलियत को बताया है। उन्होंने बाहरी आभूषण और भेष की बजाय, आंतरिक पवित्रता और सच्चाई पर जोर दिया है। यदि कोई व्यक्ति केवल बाहरी रूप से संत बनता है, लेकिन उसकी आंतरिक स्थिति खराब है, तो उसकी संतई की कोई कीमत नहीं है। संत का असली मतलब केवल बाहरी दिखावे से नहीं, बल्कि आंतरिक गुणों और अच्छाइयों से होता है।


जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार।।३६४।।

अर्थ: जो व्यक्ति घरेलू कर्तव्यों और गुणों को बनाए रखता है, और गुरु की बातों और संतों की संगति में मन और वचन से संलग्न रहता है, वही सेवा का सार पाता है।।

Meaning: One who upholds domestic duties and virtues, and who engages in the guru's teachings and saintly company, both in mind and speech, finds true essence in service.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने घरेलू धर्म और शील के महत्व को बताते हुए गुरु की बातों और संतों की संगति की महत्ता को स्वीकार किया है। एक व्यक्ति जो अपने घर के धर्म और शील को निभाता है और गुरु की शिक्षाओं के प्रति मन और वचन से समर्पित रहता है, वह सेवा का असली अर्थ समझता है। यह दोहा यह भी सिखाता है कि सच्ची सेवा और साधना का सार केवल बाहरी क्रियाओं से नहीं, बल्कि आंतरिक भक्ति और नैतिकता से प्राप्त होता है।


शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव।।३६५।।

अर्थ: जो व्यक्ति शब्दों पर विचार करता है, वह ज्ञान के मार्ग पर चलता है, लेकिन वह कहीं भी घूमे या बैठे, घर में हो या छांव के नीचे, यह महत्वहीन है।।

Meaning: One who ponders over words walks the path of knowledge, but whether they wander or sit, whether they are in the home or under a canopy, is inconsequential.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने ज्ञान की प्राप्ति और शब्दों पर विचार करने के महत्व को बताया है। एक व्यक्ति जो शब्दों और ज्ञान पर ध्यान देता है, वह सही मार्ग पर चलता है। हालांकि, उसका भौतिक स्थान या स्थिति—चाहे वह घर में हो या बाहर, महत्वपूर्ण नहीं है। असली मायने में, ज्ञान का मार्ग और उसकी प्राप्ति आंतरिक समझ और चिंतन से होती है।


गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द।।३६६।।

अर्थ: गृहस्थ संत के साथ भक्ति और आनंद पाता है। कबीर कहते हैं कि जो बैरागी (संन्यासी) निरबान रहता है, वह अपरिवर्तित और असंलग्न रहता है।।

Meaning: The householder finds joy and devotion with a saint. Kabir says that a renunciant (ascetic) who is indifferent remains detached and unaffected.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने गृहस्थ और संन्यासी की भिन्नता को स्पष्ट किया है। गृहस्थ संत की संगति में भक्ति और आनंद का अनुभव करता है, जबकि एक संन्यासी जो निरबान और असंलग्न होता है, वह बाहरी दुनिया से अप्रभावित रहता है। कबीर ने यह दर्शाया है कि संत की संगति से गृहस्थ को भक्ति और सुख मिलता है, जबकि एक संन्यासी का जीवन निरविकार और असंलग्न होता है।


पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय।
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय।।३६७।।

अर्थ: जब कोई व्यक्ति विनम्रता और गुणों से भर जाता है और गुरु की सेवा में अपने मन को लगाता है, तभी गुरु की आज्ञा प्राप्त कर सकता है और देशांतर जा सकता है।।

Meaning: After filling oneself with virtues of humility, and dedicating oneself to the service of the guru, one may then receive the guru's command and go to foreign lands.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने गुरु की सेवा और विनम्रता के महत्व को दर्शाया है। जब कोई व्यक्ति अपने जीवन में गुणों और विनम्रता को भरता है और गुरु की सेवा में समर्पित रहता है, तभी वह गुरु की आज्ञा प्राप्त कर सकता है और विदेश यात्रा पर जा सकता है। यह दोहा यह भी बताता है कि गुरु की सेवा और आदर्श जीवन जीने से व्यक्ति को आध्यात्मिक दिशा और आशीर्वाद प्राप्त होता है।


गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख।।३६८।।

अर्थ: जो व्यक्ति गुरु के सामने रहता है, वह दुख की कसौटी सहता है। कबीर कहते हैं कि दुख भी अनगिनत सुखों के लिए स्वीकार्य होता है।।

Meaning: One who stays in the presence of the guru endures the test of suffering. Kabir says that even suffering is worth it if it brings countless blessings.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने गुरु के साथ रहने के महत्व को बताया है। गुरु की उपस्थिति में रहकर व्यक्ति जीवन की कठिनाइयों और दुखों का सामना करता है, लेकिन ये दुख अनगिनत सुखों के लिए वांछनीय होते हैं। कबीर ने यह स्पष्ट किया है कि गुरु की संगति में कठिनाइयाँ भी आध्यात्मिक लाभ में परिवर्तित हो जाती हैं।


मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग।।३६९।।

अर्थ: मन मैला है और शरीर बाहर से साफ है, जैसे कपटी बगुला। ऐसे व्यक्ति की तुलना में कौवा बेहतर है क्योंकि उसका शरीर और मन एक ही रंग का है।।

Meaning: The mind is impure and the body is outwardly clean, like a deceitful heron. Compared to such a person, a crow is better as its body and mind are of the same color.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने मानसिक और बाहरी स्वच्छता की असंगति को दर्शाया है। बगुला, जो बाहरी तौर पर साफ दिखता है लेकिन अंदर से कपटी होता है, उसे श्रेष्ठ नहीं माना गया। इसके विपरीत, कौवा जिसे बाहरी रूप से असुंदर माना जाता है, लेकिन उसका मन और शरीर एक समान रंग के होते हैं। कबीर ने यह स्पष्ट किया है कि मानसिक पवित्रता बाहरी स्वच्छता से अधिक महत्वपूर्ण है।


भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान।।३७०।।

अर्थ: बाहर की शक्ल देखकर मत बहलाइए, आंतरिक ज्ञान को समझिए। सच्चे सोने की पहचान केवल सही कसौटी से होती है।।

Meaning: Do not be deceived by outward appearance; seek the inner knowledge. True gold is identified only through a proper test.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने बाहरी आभूषणों और दिखावे के बजाय आंतरिक ज्ञान की महत्वपूर्णता को दर्शाया है। जैसे कि सोने की सच्चाई को कसौटी द्वारा ही जाना जा सकता है, वैसे ही सच्चा ज्ञान भी बाहरी रूप से नहीं, बल्कि आंतरिक परीक्षण और समझ से प्राप्त होता है। कबीर ने यह सिखाया है कि सतही दिखावे से परे जाकर वास्तविकता की पहचान करनी चाहिए।


फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल।
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल।।३७१।।

अर्थ: एक गीदड़ जो सिंह की खाल ओढ़े हुए है, वह शक्तिशाली लग सकता है, लेकिन जब असली सिंह आता है, तो गीदड़ की disguising बेकार हो जाती है।।

Meaning: A jackal dressed in a lion's skin may seem mighty, but when a real lion arrives, the jackal's disguise is worthless.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने बाहरी दिखावे और वास्तविकता के बीच के अंतर को स्पष्ट किया है। गीदड़ जो सिंह की खाल ओढ़े हुए है, वह भले ही बाहरी तौर पर शक्तिशाली लगे, लेकिन असली सिंह की उपस्थिति से उसकी सच्चाई उजागर हो जाती है। यह दोहा इस बात को दर्शाता है कि वास्तविक शक्ति और गुण बाहरी आभूषण और दिखावे से नहीं, बल्कि अंतर्निहित सच्चाई से मापे जाते हैं।


धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग।
गिरही दासातन करे, बैरागी अनुराग।।३७२।।

अर्थ: दोनों धाराएं अच्छी हैं, एक विरह का वैराग और एक गृहस्थ का प्रेम। गृहस्थ का वैराग और संन्यासी का प्रेम दोनों की अपनी-अपनी अच्छाइयाँ हैं।।

Meaning: Both streams are good, the renunciation of the separated and the devotion of the householder. The householder's detachment and the renunciant's devotion both have their merits.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने संन्यासी और गृहस्थ के वैराग और प्रेम की तुलना की है। कबीर के अनुसार, दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं और दोनों के पास अपना महत्व है। संन्यासी का वैराग और गृहस्थ का प्रेम दोनों ही आध्यात्मिक मार्ग में योगदान देते हैं। इस प्रकार, किसी एक को श्रेष्ठ मानने के बजाय, दोनों को उनके अपने संदर्भ में समझना चाहिए।


अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख।।३७३।।

अर्थ: अभी भी, यदि आप गुरु की शिक्षा को मानते हैं, तो आपके सभी दोष मिट सकते हैं। जब तक आप घर में रहेंगे, भीख माँगना व्यर्थ है।।

Meaning: Even now, all your misdeeds will be erased if you accept the guru's teachings. As long as you remain at home, seeking alms is futile.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने गुरु की शिक्षा को मानने के महत्व को बताया है। वे कहते हैं कि गुरु की शिक्षा को स्वीकार करने से सभी दोष मिट जाते हैं। और जब तक कोई व्यक्ति घर में रहकर भीख माँगता है, तब तक वह व्यर्थ होता है। यह दोहा इस बात पर जोर देता है कि गुरु की शिक्षा से आत्म-सुधार और प्रगति संभव है।


माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं।।३७४।।

अर्थ: जो माँगता है, वह भरपूर रहता है, लेकिन जो बार-बार माँगता है, वह हमेशा मांगता रहता है। जो बार-बार माँगते हैं, वे अपने इच्छाओं को पूरा करने से पहले ही मर जाते हैं।।

Meaning: One who asks for alms remains full, but those who keep asking keep demanding. They who keep asking will perish before they fulfill their desires.

व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास ने माँगने की प्रवृत्ति और इसके परिणामों पर टिप्पणी की है। वे कहते हैं कि एक बार माँगने से व्यक्ति संतुष्ट रह सकता है, लेकिन जो लोग बार-बार माँगते हैं, वे हमेशा असंतुष्ट रहते हैं। ऐसे लोग अपनी इच्छाओं को पूरा करने से पहले ही मर जाते हैं। यह दोहा इस बात को दर्शाता है कि अत्यधिक माँगना और असंतोष की भावना व्यक्ति की जीवन की यात्रा में बाधक हो सकती है।


आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह।।३७५।।

अर्थ: जब आप कुछ मांगते हैं, तो आदर, सम्मान और स्नेह सब चले जाते हैं। ये तीनों तभी जाते हैं जब आप कुछ माँगते हैं।

Meaning: When you say 'give me something,' respect, honor, and affection all go away. These three depart only when you ask for something.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी यह बता रहे हैं कि जब कोई व्यक्ति कुछ माँगता है, तो उसके आदर, सम्मान और स्नेह में कमी आ जाती है। यानी, मांगने की आदत आपके आत्म-सम्मान और दूसरों के प्रति आपके संबंधों को प्रभावित करती है। आदर और स्नेह तभी टिके रहते हैं जब व्यक्ति स्वाभिमानी और स्वतंत्र रहता है, और किसी से कुछ नहीं माँगता। यह दोहा हमें आत्म-निर्भरता और स्वाभिमान की ओर प्रेरित करता है।


अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय।।३७६।।

अर्थ: अनमाँगना सर्वोत्तम है; माँगना और प्राप्त करना सामान्य है। कबीर कहते हैं कि कुछ माँगना मानवीय गरिमा को कम करता है।

Meaning: Not asking is the best; asking and receiving is average. Kabir says, asking for something lowers one's dignity.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी बताते हैं कि अनमाँगना सबसे अच्छा है, जबकि कुछ माँगना और प्राप्त करना केवल औसत स्थिति है। माँगने से व्यक्ति की गरिमा कम होती है और उसकी आत्म-संमान में कमी आती है। कबीर जी के अनुसार, माँगना मानवीय गरिमा को घटाता है, और इसलिए हमें आत्म-निर्भर रहकर अपने सम्मान को बनाए रखना चाहिए। यह दोहा हमें स्वाभिमान और आत्म-सम्मान को महत्व देने की प्रेरणा देता है।


अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष।।३७७।।

अर्थ: अनमाँगना बहुत अच्छा है; अगर आवश्यक हो तो माँगने में कोई दोष नहीं है। माँगकर प्राप्त की गई चीज़ से संतुष्ट रहना चाहिए।

Meaning: Not asking is very good; there is no fault in asking if necessary. One should be content with what is received through begging.

व्याख्या: कबीर दास जी इस दोहे में यह बताते हैं कि अनमाँगना बहुत अच्छा है, लेकिन अगर ज़रूरत पड़ जाए तो माँगने में कोई दोष नहीं है। माँगकर जो कुछ भी प्राप्त होता है, उस पर संतुष्ट रहना चाहिए। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि आत्म-संयम और आत्म-निर्भरता महत्वपूर्ण हैं, लेकिन आवश्यक परिस्थितियों में माँगने से भी कोई बुराई नहीं है, बस हमें प्राप्त चीज़ों को उचित रूप से स्वीकार कर संतुष्ट रहना चाहिए।


कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय।
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय।।३७८।।

अर्थ: संतों की संगति में लगातार रहना बुरी सोच को दूर करता है और अच्छी समझ और सुमति लाता है।

Meaning: Constant association with saints drives away evil thoughts and brings wisdom and good understanding.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी का कहना है कि अगर हम संतों की संगति में नियमित रूप से रहें, तो हमारे मन से बुरी सोच (दुरमति) दूर हो जाती है और हमें सही मार्गदर्शन और सुमति (अच्छी बुद्धि) प्राप्त होती है। संतों की संगति हमारे विचारों को सकारात्मक दिशा देती है और हमें जीवन की सही समझ प्रदान करती है। इस प्रकार, संतों की संगति हमारे मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।


कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय।।३७९।।

अर्थ: संतों की संगति में, जो भी इसे समझता है, वह सभी वृक्षों की तरह चंदन बन जाता है, लेकिन बांस चंदन नहीं बनता।

Meaning: In the company of saints, anyone who understands it becomes like sandalwood trees, but bamboo does not become sandalwood.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी संतों की संगति के प्रभाव को समझाते हैं। वे कहते हैं कि संतों की संगति में जो भी व्यक्ति इसे सही तरीके से समझता है, वह चंदन के वृक्ष की तरह पवित्र और सुगंधित बन जाता है। लेकिन बांस, जो अपने स्वभाव से चंदन नहीं बन सकता, वह चंदन नहीं बनता। इसका तात्पर्य यह है कि कुछ लोग संतों की संगति से लाभ उठाते हैं और उनका चरित्र बदल जाता है, जबकि कुछ नहीं बदलते। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि संतों की संगति का सही लाभ उठाने के लिए समझ और गहराई की आवश्यकता है।


मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग।।३८०।।

अर्थ: मन कहीं और है, जबकि शरीर संतों के साथ है। कबीर कहते हैं, यह जैसे बंजर खेत है; इसमें फल कैसे लग सकता है?

Meaning: The mind is elsewhere, while the body is with the saints. Kabir says, it is like a barren field; how can it bear fruit?

व्याख्या: कबीर दास जी इस दोहे में यह व्यक्त कर रहे हैं कि जब मन और शरीर दोनों का ध्यान संतों की संगति में नहीं होता, तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि आपका मन कहीं और भटक रहा है और शरीर केवल संतों के साथ है, तो यह बंजर खेत जैसा है, जिसमें कोई फल नहीं उग सकता। इस दोहे से कबीर जी यह संदेश देते हैं कि संतों की संगति का वास्तविक लाभ तभी होता है जब मन और शरीर दोनों ही पूरी तरह से वहां ध्यान केंद्रित करें।


साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह।
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह।।३८१।।

अर्थ: संतों की संगति से शरीर श्रद्धा से कांपता है। व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि स्नेह झूठी भावनाओं से मिट न जाए।

Meaning: From the company of saints, the body trembles with reverence. One should be careful that the affection does not fade due to feelings of false attachment.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी बताते हैं कि संतों की संगति में व्यक्ति का शरीर श्रद्धा से कांपता है। लेकिन यह भी आवश्यक है कि इस श्रद्धा और स्नेह को बनाए रखा जाए और झूठी भावनाओं से प्रभावित न होने दिया जाए। इस दोहे का संदेश है कि संतों की संगति में भक्ति और श्रद्धा के साथ-साथ हमें अपनी भावनाओं की गहराई और सच्चाई पर ध्यान देना चाहिए, ताकि हमारा स्नेह स्थायी और सच्चा रहे।


साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय।
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय।।३८२।।

अर्थ: संतों की संगति में अंतर होने पर, यह बुद्धि कभी सही नहीं होती। कबीर कहते हैं, मैंने तीनों लोकों में किसी को भी सच्चे सुखी नहीं देखा।

Meaning: When there is a gap in the company of saints, this intellect is never right. Kabir says, I have not seen anyone truly happy in all three worlds.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी यह कहते हैं कि यदि संतों की संगति में कोई अंतर या विघ्न होता है, तो बुद्धि सही नहीं रहती और जीवन की समझ भी प्रभावित होती है। कबीर जी के अनुसार, तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) में किसी भी व्यक्ति को सच्चे सुख का अनुभव नहीं हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि संतों की संगति और सही मार्गदर्शन के बिना, व्यक्ति वास्तविक सुख और संतोष प्राप्त नहीं कर सकता। यह दोहा हमें सच्चे सुख के लिए संतों की संगति की महत्ता समझाता है।


संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय।।३८३।।

अर्थ: जो भी संतों के गुरु के देश में निवास करता है, वह बदल जाता है। एक कौआ हंस में बदल जाता है, और जाति व वर्ण की कोई महत्वता नहीं रहती।

Meaning: Whoever resides in the land of the guru of saints becomes transformed. A crow turns into a swan, and caste and varna lose their significance.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने संतों के गुरु के देश में रहने के लाभ को बताया है। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति इस पवित्र स्थान पर निवास करता है, वह पूरी तरह से बदल जाता है। यहाँ तक कि एक कौआ हंस के समान पवित्र और सुंदर बन जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि संतों के संग और उनके स्थान पर निवास करने से व्यक्ति की आत्मा और उसका व्यक्तित्व पूरी तरह से बदल जाता है, और जाति व वर्ण की सीमाएं महत्वहीन हो जाती हैं। यह दोहा संतों की शक्ति और उनके प्रभाव को उजागर करता है।


तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल।
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल।।३८४।।

अर्थ: अगर आप गुरु के सच्चे प्रेम के साथ खेलते हैं, तो यह कच्ची सरसों को दबाने के समान है; इससे तेल नहीं बनेगा।

Meaning: If you play with the true love of the guru, it is like pressing raw mustard seeds; it will not turn into oil.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने सच्चे प्रेम और भक्ति की महत्ता को समझाया है। वे कहते हैं कि सच्चे प्रेम के साथ खेलना कच्ची सरसों को दबाने के समान है, जिससे तेल नहीं निकलेगा। इसका तात्पर्य है कि सच्चे प्रेम और भक्ति में कच्ची, अस्थिर भावनाओं के बजाय, स्थिर और परिपक्व प्रेम होना चाहिए, जो सच्चे फल (भक्ति) को प्राप्त कर सके। यह दोहा हमें सिखाता है कि वास्तविक प्रेम और भक्ति में गंभीरता और स्थिरता आवश्यक है।


काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान।
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान।।३८५।।

अर्थ: कच्चे (अपूर्ण) साधनों से बुद्धि प्राप्त होती है और पके (पूर्ण) तरीकों से कौशल मिलता है। कच्चे साधनों के साथ मिलना शरीर और धन की हानि का कारण बनता है।

Meaning: One gains intellect with raw (imperfect) means and skill with mature (perfect) methods. Associating with raw means results in loss of body and wealth.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने कच्चे और पके साधनों के बीच अंतर को स्पष्ट किया है। वे बताते हैं कि कच्चे या अस्थिर साधनों से केवल बुद्धि प्राप्त होती है, जबकि परिपक्व और सही तरीकों से कौशल और क्षमता मिलती है। कच्चे साधनों के साथ संपर्क रखने से व्यक्ति के शरीर और धन की हानि हो सकती है। इसका तात्पर्य है कि हमें हमेशा परिपक्व और सही साधनों के साथ जुड़कर ही सही परिणाम प्राप्त करने चाहिए, जिससे हमारी मानसिक और भौतिक स्थिति में सुधार हो सके।


कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव।
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत।।३८६।।

अर्थ: कोयला भी उज्जवल हो सकता है अगर उसे आग में जलाया जाए। लेकिन मूर्ख हमेशा अंधकारमय रहता है, जैसे काले मिट्टी का खेत।

Meaning: Even coal can become bright if it is burned in the fire. But a fool remains dark, like a field of black soil.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने यह व्यक्त किया है कि कोयला भी अगर आग में तपाया जाए, तो वह उज्जवल और चमकदार हो जाता है। लेकिन मूर्ख व्यक्ति कभी भी उज्जवल नहीं हो सकता, चाहे उसे कितनी भी शिक्षा दी जाए, वह हमेशा अंधकारमय रहता है। इसका तात्पर्य है कि ज्ञान और समझ के बिना, व्यक्ति का चरित्र और स्वभाव नहीं बदलता। यह दोहा हमें समझाता है कि केवल बाहरी परिवर्तन से ही व्यक्ति की गुणवत्ता नहीं बदलती, बल्कि आंतरिक जागरूकता और समझ आवश्यक होती है।


मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय।
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय।।३८७।।

अर्थ: मूर्ख को समझाने की कोशिश कोयले की गंदगी को साबुन से धोने के समान है; चाहे कितनी भी साबुन लगाएं, वह साफ नहीं होगा।

Meaning: Explaining to a fool is like trying to remove the dirt from coal; no matter how much soap you use, it won't become clean.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने मूर्ख व्यक्ति को समझाने की व्यर्थता को दर्शाया है। वे बताते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान या समझाने की कोशिश उतनी ही व्यर्थ है जैसे कोयले की गंदगी को सौ मन साबुन से धोने का प्रयास। कोयला कभी भी साफ नहीं हो सकता, और मूर्ख व्यक्ति की समझ भी कभी नहीं बदल सकती। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि कुछ लोगों को समझाने की कोशिश करना केवल समय की बर्बादी हो सकती है, और इसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं होता।


साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह।
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह।।३८८।।

अर्थ: कई शब्दों की सिखाई सुनी जा सकती है, लेकिन यदि मन का मोह न मिटे, तो यह लौह के पारस तक नहीं पहुंचने के समान है; यह लौह ही रहता है।

Meaning: One may hear many words of wisdom, but if the mind's attachment is not removed, it is like iron that has not reached the touchstone; it remains as iron.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने शब्दों और ज्ञान के सीमित प्रभाव को व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि भले ही व्यक्ति बहुत सारे ज्ञान के शब्द सुन ले, लेकिन अगर उसके मन में मोह और attachments नहीं मिटते, तो इसका कोई लाभ नहीं है। यह लौह और पारस के उदाहरण से स्पष्ट किया गया है, जिसमें लौह को पारस के संपर्क में आने से ही उसका स्वरूप बदलता है। इसी तरह, बिना वास्तविक आंतरिक परिवर्तन के, सुने गए शब्द और ज्ञान किसी काम के नहीं होते।


ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय।
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए।।३८९।।

अर्थ: ब्राह्मणों की बेटियां मांस और शराब नहीं खातीं, लेकिन यदि वे शराबियों के साथ मिलती हैं, तो मद से दूर नहीं रह सकतीं।

Meaning: The daughters of Brahmins may not consume meat or alcohol, but if they associate with drinkers, they cannot stay away from intoxication.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने यह दर्शाया है कि बाहरी आचरण और सामाजिक स्थिति कुछ भी हो, लेकिन यदि व्यक्ति का संपर्क गलत संगति के साथ होता है, तो उनका चरित्र और व्यवहार प्रभावित हो जाता है। ब्राह्मणों की बेटियां भले ही मांस और शराब का सेवन न करें, लेकिन अगर उनकी संगति शराबियों के साथ हो, तो वे भी मद्यपान से दूर नहीं रह सकतीं। इसका तात्पर्य यह है कि संगति का प्रभाव व्यक्ति के जीवन और चरित्र पर गहरा होता है।


जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय।
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय।।३९०।।

अर्थ: जीवन एक मद की रात की तरह है, और कोई भी स्थिर नहीं रहता। लेकिन यदि कोई दिन संतों की संगति में बिताता है, तो जीवन का फल प्राप्त होता है।

Meaning: Life is like a night of intoxication, and no one remains steadfast. But if one spends the day in the company of saints, the fruit of life is realized.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने जीवन के महत्व को और संतों की संगति के लाभ को स्पष्ट किया है। वे जीवन को एक मद की रात के समान बताते हैं, जिसमें स्थिरता और स्थिरता नहीं रहती। लेकिन यदि व्यक्ति संतों की संगति में समय बिताता है, तो वह जीवन का वास्तविक फल और सुख प्राप्त कर सकता है। इस दोहे से यह सिखने को मिलता है कि संतों की संगति हमारे जीवन को सही दिशा देती है और हमें स्थिरता और समझ प्रदान करती है।


दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय।
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय।।३९१।।

अर्थ: नील का दाग सौ मन साबुन से भी नहीं हटता। चाहे कितनी भी कोशिश की जाए, कौआ हंस नहीं बन सकता।

Meaning: A stain from indigo cannot be removed even with a hundred pounds of soap. No matter how many efforts are made, a crow cannot become a swan.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने आंतरिक शुद्धता और परिवर्तन की सीमाओं को व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि नील का दाग इतना गहरा होता है कि सौ मन साबुन से भी नहीं हटता, और कौआ अपनी स्वभावगत पहचान को बदल नहीं सकता, चाहे कितनी भी कोशिश की जाए। इसका तात्पर्य है कि कुछ चीजें अपनी स्वाभाविक विशेषताओं को बनाए रखती हैं, और आंतरिक परिवर्तन के लिए गहरी और सच्ची साधना की आवश्यकता होती है। यह दोहा हमें यह समझाने में मदद करता है कि बाहरी प्रयासों से आंतरिक रूप में वास्तविक परिवर्तन नहीं आता।


जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय।
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय।।३९२।।

अर्थ: यदि आप इसे छोड़ देते हैं, तो आपको कठिनाई का सामना करना पड़ेगा; यदि आप इसका सेवन करते हैं, तो आप मर जाएंगे। ऐसा ही पछतावा छछून्दरी का है, जो दोनों ही तरीकों से पछताती है।

Meaning: If you abandon it, you will face hardship; if you consume it, you will die. Such is the regret of the leech, which suffers in both ways.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने छछून्दरी (जो एक परजीवी है) के माध्यम से उस स्थिति को दर्शाया है जब कोई व्यक्ति दोनों ही तरीकों से पछताता है। अगर व्यक्ति किसी चीज को छोड़ देता है, तो उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और अगर वह उसे स्वीकार कर लेता है, तो उसके लिए मृत्यु का कारण बन जाता है। छछून्दरी की तरह, दोनों विकल्प उसे पछताने के लिए मजबूर कर देते हैं। यह दोहा हमें सिखाता है कि कभी-कभी हम ऐसी स्थिति में फंस जाते हैं जहाँ दोनों विकल्प हमें पछताने के लिए मजबूर करते हैं।


प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय।
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय।।३९३।।

अर्थ: झूठे प्रेम से प्राप्त सुख क्षणिक होता है, जैसे छछून्दरी जो साँप को पकड़कर पछताती है।

Meaning: The pleasure gained from false love is fleeting, like the leech that, having grasped a snake, regrets it.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने झूठे प्रेम और उसके परिणाम को स्पष्ट किया है। वे बताते हैं कि झूठे प्रेम से प्राप्त सुख स्थायी नहीं होता, और यह उसी तरह है जैसे छछून्दरी ने साँप को पकड़ लिया और बाद में पछताया। इसका तात्पर्य है कि अगर किसी को झूठे प्रेम में सुख की उम्मीद होती है, तो वह अंततः पछताएगा, क्योंकि वह प्रेम कभी भी स्थायी और वास्तविक नहीं होता। यह दोहा हमें सिखाता है कि केवल सच्चे और वास्तविक प्रेम में ही स्थायी सुख प्राप्त हो सकता है।


कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय।
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय।।३९४।।

अर्थ: कई विषधारी जीव मिलते हैं, लेकिन कोई मणिधर नहीं मिलता। यदि विषधारी जीव मणिधर से मिल जाए, तो उसका विष अमृत में बदल जाता है।

Meaning: Many poisonous creatures are encountered, but not a single gem-holder. If a poisonous snake meets a gem-holder, its poison turns to nectar.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने सच्चे गुरु की महत्वता को दर्शाया है। वे कहते हैं कि बहुत सारे विषधारी जीव (बुरे लोग या मुश्किलें) मिल सकते हैं, लेकिन सच्चा मणिधर (सच्चा गुरु) नहीं मिलता। जब विषधारी जीव सच्चे गुरु से मिलता है, तो उसकी विषमता अमृत में बदल जाती है। इसका तात्पर्य है कि सच्चे गुरु के संपर्क से व्यक्ति की बुराई और समस्याएं समाप्त हो जाती हैं, और वह आत्मा को शांति और अमृत प्राप्त होता है।


सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात।
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात।।३९५।।

अर्थ: जब सज्जन लोग मिलते हैं, तो दो अच्छी बातें होती हैं। लेकिन जब मूर्ख मिलते हैं, तो वे एक-दूसरे को दो-दो लात मारते हैं।

Meaning: When good people meet, there are two good conversations. But when fools meet, they exchange two blows.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने सज्जन और मूर्ख लोगों की संगति के प्रभाव को स्पष्ट किया है। वे बताते हैं कि सज्जन लोग एक-दूसरे से अच्छे और सारगर्भित वार्तालाप करते हैं, जबकि मूर्ख लोग एक-दूसरे को केवल नुकसान और झगड़े का सामना कराते हैं। इसका तात्पर्य है कि संगति का प्रभाव व्यक्ति की बातचीत और व्यवहार पर सीधा होता है, और सज्जन संगति से सकारात्मक परिणाम मिलते हैं, जबकि मूर्ख संगति से नकारात्मक परिणाम मिलते हैं।


तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज।
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज।।३९६।।

अर्थ: यदि एक पेड़ को उसकी जड़ से काट दिया जाए, तो जहाज को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। जहाज के मस्तूल को पकड़ने में कोई लाज नहीं है।

Meaning: If a tree is cut at its root, the ship cannot be controlled. There is no shame in clinging to the mast of the ship.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने सच्चाई और प्रयास की आवश्यकता को व्यक्त किया है। वे बताते हैं कि अगर एक पेड़ को उसकी जड़ से काट दिया जाए, तो जहाज को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इसका तात्पर्य है कि किसी चीज की जड़ को समाप्त किए बिना, केवल सतही प्रयास पर्याप्त नहीं होते। जहाज के मस्तूल को पकड़ने में कोई लाज नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यही एकमात्र तरीका है जहाज को सही दिशा में ले जाने का। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि सच्चे प्रयास और सही साधन से ही हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।


मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ।
ओछी संगत नीच की, सरि पर पाड़ी बाट।।३९७।।

अर्थ: मुझे समझ में आता है कि लकड़ी कठिन है; नीच संगति के कारण मार्ग कठिन हो जाता है, जैसे कि एक नदी जो अपना मार्ग खो चुकी है।

Meaning: I realize that the wood is hard; the path becomes difficult when one takes the lowly company, like a river that has lost its course.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने नीच संगति के प्रभाव को स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि जैसे कठिन लकड़ी को समझना कठिन होता है, वैसे ही नीच लोगों की संगति के कारण जीवन का मार्ग कठिन हो जाता है। यह स्थिति एक नदी के मार्ग बदलने के समान होती है, जिसमें सही दिशा की कमी हो जाती है। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि नीच संगति से जीवन की राह में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं और हमें अच्छे लोगों की संगति करनी चाहिए।


लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति।
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति।।३९८।।

अर्थ: लकड़ी पानी में डूब नहीं सकती; बताओ कहाँ है प्रेम? अपनी स्वभाव को जानकर, यही बढ़ने की रीति है।

Meaning: Wood cannot be submerged in water; tell me where is the love? Knowing one's own nature, this is the way to grow.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने आत्म-ज्ञान और स्वयं के स्वभाव को समझने की आवश्यकता को दर्शाया है। वे कहते हैं कि लकड़ी पानी में डूब नहीं सकती, और इसी तरह प्रेम का पता लगाना कठिन हो सकता है। लेकिन व्यक्ति को अपने स्वभाव को जानकर और उसे समझकर ही वह सच्चे रूप में बढ़ सकता है। यह दोहा आत्म-ज्ञान और अपने स्वभाव की पहचान के महत्व को बताता है, जो जीवन की उन्नति के लिए आवश्यक है।


साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग।।३९९।।

अर्थ: जो साधुओं की संगति छोड़ता है और विषयों में लिप्त होता है, वह वैसे ही है जैसे गंगा के जल को छोड़कर कुएँ के पानी को अपनाता है।

Meaning: One who leaves the company of saints and indulges in worldly pleasures is like someone who forsakes the Ganges for the water of a pit.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने सच्ची संगति के महत्व को स्पष्ट किया है। वे बताते हैं कि जो व्यक्ति साधुओं की संगति को छोड़कर सांसारिक विषयों में लिप्त होता है, वह गंगा के पवित्र जल को छोड़कर कुएँ के साधारण पानी को अपनाने जैसा है। इसका तात्पर्य है कि सांसारिक विषयों में लिप्त होकर व्यक्ति अपने जीवन की अमूल्यता को खो देता है। यह दोहा हमें सिखाता है कि हमें सच्चे और पवित्र लोगों की संगति करनी चाहिए, ताकि हम जीवन की सही दिशा में बढ़ सकें।


संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग।।४००।।

अर्थ: ऐसी संगति कीजिये, जैसे मीठे रस की संगत हो; भले ही उनमें कुछ दोष हों, लेकिन उनकी संगति को छोड़ना मत।

Meaning: Associate with such people whose company is like the syrupy nectar; even if they have flaws, do not abandon their company.

व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास जी ने सच्ची और गुणी संगति की महत्वता को दर्शाया है। वे कहते हैं कि हमें ऐसी संगति करनी चाहिए जो मीठे रस की तरह हो, जिससे जीवन में मिठास और सुख मिले। हालांकि, उनमें कुछ दोष हो सकते हैं, लेकिन हमें उनकी संगति को नहीं छोड़ना चाहिए। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि सही संगति से जीवन में मिठास और गुण प्राप्त होते हैं, और हमें ऐसे लोगों के साथ रहना चाहिए जो हमें सकारात्मक दिशा में मार्गदर्शन करें।