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शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार।।३०१।।— संत कबीर दास साहेब
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साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय।
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय।।३०२।।— संत कबीर दास साहेब
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साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय।।३०३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय।
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय।।३०४।।— संत कबीर दास साहेब
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संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ।
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ।।३०५।।— संत कबीर दास साहेब
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साकट संग न बैठिये, करन कुबेर समान।
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान।।३०६।।— संत कबीर दास साहेब
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टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि।
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि।।३०७।।— संत कबीर दास साहेब
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साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक।
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक।।३०८।।— संत कबीर दास साहेब
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हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो।
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो।।३०९।।— संत कबीर दास साहेब
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खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय।
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय।।३१०।।— संत कबीर दास साहेब
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घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास।
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास।।३११।।— संत कबीर दास साहेब
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आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल।।३१२।।— संत कबीर दास साहेब
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दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार।
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार।।३१३।।— संत कबीर दास साहेब
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बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय।
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय।।३१४।।— संत कबीर दास साहेब
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छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय।
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय।।३१५।।— संत कबीर दास साहेब
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मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त।
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त।।३१६।।— संत कबीर दास साहेब
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इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय।
कहै कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय।।३१७।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर दर्शन साधु के, खाली हाथ न जाय।
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय।।३१८।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार।
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार।।३१९।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग।
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग।।३२०।।— संत कबीर दास साहेब
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आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय।
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय।।३२१।।— संत कबीर दास साहेब
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छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय।
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय।।३२२।।— संत कबीर दास साहेब
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सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह।।३२३।।— संत कबीर दास साहेब
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साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव।
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव।।३२४।।— संत कबीर दास साहेब
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कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल।
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल।।३२५।।— संत कबीर दास साहेब
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क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान।
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम।।३२६।।— संत कबीर दास साहेब
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जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप।
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप।।३२७।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड।
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड।।३२८।।— संत कबीर दास साहेब
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आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद।
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद।।३२९।।— संत कबीर दास साहेब
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वेद थके ब्रह्मा थके, याके सेस महेस।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस।।३३०।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन।।३३१।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं।।३३२।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार।
डगमगाय तो गिर पड़े, निहचल उतरे पार।।३३३।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर।।३३४।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु चाल जु चालई, साधु की चाल।
बिन साधन तो सुधि नाहिं, साधु कहाँ ते होय।।३३५।।— संत कबीर दास साहेब
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साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि।।३३६।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत।।३३७।।— संत कबीर दास साहेब
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साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर।।३३८।।— संत कबीर दास साहेब
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सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार।।३३९।।— संत कबीर दास साहेब
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सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय।।३४०।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक।।३४१।।— संत कबीर दास साहेब
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निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह।।३४२।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त।।३४३।।— संत कबीर दास साहेब
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एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ।।३४४।।— संत कबीर दास साहेब
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तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल।।३४५।।— संत कबीर दास साहेब
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आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं।।३४६।।— संत कबीर दास साहेब
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जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि।।३४७।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं।।३४८।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर।।३४९।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त मिले सुख ऊपजै, दुष्ट मिले दुख होय।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय।।३५०।।— संत कबीर दास साहेब
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संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।३५१।।— संत कबीर दास साहेब
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मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त।।३५२।।— संत कबीर दास साहेब
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दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव।
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव।।३५३।।— संत कबीर दास साहेब
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सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त।।३५४।।— संत कबीर दास साहेब
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यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय।।३५५।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर।।३५६।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब।।३५७।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त होत हैं हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय।।३५८।।— संत कबीर दास साहेब
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हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय।
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय।।३५९।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग।।३६०।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग।।३६१।।— संत कबीर दास साहेब
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चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस।।३६२।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार।।३६३।।— संत कबीर दास साहेब
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जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार।।३६४।।— संत कबीर दास साहेब
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शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव।।३६५।।— संत कबीर दास साहेब
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गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द।।३६६।।— संत कबीर दास साहेब
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पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय।
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय।।३६७।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख।।३६८।।— संत कबीर दास साहेब
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मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग।।३६९।।— संत कबीर दास साहेब
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भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान।।३७०।।— संत कबीर दास साहेब
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फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल।
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल।।३७१।।— संत कबीर दास साहेब
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धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग।
गिरही दासातन करे, बैरागी अनुराग।।३७२।।— संत कबीर दास साहेब
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अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख।।३७३।।— संत कबीर दास साहेब
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माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं।।३७४।।— संत कबीर दास साहेब
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आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह।।३७५।।— संत कबीर दास साहेब
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अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय।।३७६।।— संत कबीर दास साहेब
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अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष।।३७७।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय।
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय।।३७८।।— संत कबीर दास साहेब
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कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय।।३७९।।— संत कबीर दास साहेब
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मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग।।३८०।।— संत कबीर दास साहेब
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साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह।
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह।।३८१।।— संत कबीर दास साहेब
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साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय।
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय।।३८२।।— संत कबीर दास साहेब
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संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय।।३८३।।— संत कबीर दास साहेब
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तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल।
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल।।३८४।।— संत कबीर दास साहेब
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काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान।
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान।।३८५।।— संत कबीर दास साहेब
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कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव।
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत।।३८६।।— संत कबीर दास साहेब
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मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय।
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय।।३८७।।— संत कबीर दास साहेब
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साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह।
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह।।३८८।।— संत कबीर दास साहेब
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ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय।
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए।।३८९।।— संत कबीर दास साहेब
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जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय।
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय।।३९०।।— संत कबीर दास साहेब
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दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय।
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय।।३९१।।— संत कबीर दास साहेब
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जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय।
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय।।३९२।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय।
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय।।३९३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय।
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय।।३९४।।— संत कबीर दास साहेब
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सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात।
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात।।३९५।।— संत कबीर दास साहेब
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तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज।
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज।।३९६।।— संत कबीर दास साहेब
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मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ।
ओछी संगत नीच की, सरि पर पाड़ी बाट।।३९७।।— संत कबीर दास साहेब
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लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति।
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति।।३९८।।— संत कबीर दास साहेब
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साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग।।३९९।।— संत कबीर दास साहेब
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संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग।।४००।।— संत कबीर दास साहेब