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संत कबीर के दोहे संग्रह - 301 to 400

  • शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार।
    बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार।।३०१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय।
    जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय।।३०२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय।
    दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय।।३०३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय।
    एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय।।३०४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ।
    कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ।।३०५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साकट संग न बैठिये, करन कुबेर समान।
    ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान।।३०६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि।
    टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि।।३०७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक।
    कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक।।३०८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो।
    भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो।।३०९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय।
    एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय।।३१०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास।
    वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास।।३११।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल।
    साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल।।३१२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार।
    कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार।।३१३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय।
    कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय।।३१४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय।
    कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय।।३१५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त।
    यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त।।३१६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय।
    कहै कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय।।३१७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर दर्शन साधु के, खाली हाथ न जाय।
    यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय।।३१८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार।
    जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार।।३१९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग।
    तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग।।३२०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय।
    कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय।।३२१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय।
    जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय।।३२२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह।
    परमारथ के कारने, चारों धारी देह।।३२३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव।
    चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव।।३२४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल।
    कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल।।३२५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान।
    वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम।।३२६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप।
    जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप।।३२७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड।
    सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड।।३२८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद।
    षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद।।३२९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • वेद थके ब्रह्मा थके, याके सेस महेस।
    गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस।।३३०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान।
    शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन।।३३१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं।
    पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं।।३३२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार।
    डगमगाय तो गिर पड़े, निहचल उतरे पार।।३३३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर।
    चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर।।३३४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु चाल जु चालई, साधु की चाल।
    बिन साधन तो सुधि नाहिं, साधु कहाँ ते होय।।३३५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि।
    अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि।।३३६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत।
    कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत।।३३७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर।
    शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर।।३३८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार।
    आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार।।३३९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय।
    छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय।।३४०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक।
    बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक।।३४१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह।
    विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह।।३४२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत।
    मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त।।३४३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ।
    अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ।।३४४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल।
    कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल।।३४५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं।
    लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं।।३४६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि।
    जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि।।३४७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं।
    पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं।।३४८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और।
    मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर।।३४९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सन्त मिले सुख ऊपजै, दुष्ट मिले दुख होय।
    सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय।।३५०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
    लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।३५१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त।
    भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त।।३५२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव।
    येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव।।३५३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त।
    ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त।।३५४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय।
    कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय।।३५५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़।
    जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर।।३५६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब।
    बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब।।३५७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सन्त होत हैं हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय।
    कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय।।३५८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय।
    कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय।।३५९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग।
    विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग।।३६०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग।
    ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग।।३६१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस।
    ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस।।३६२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार।
    बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार।।३६३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार।
    गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार।।३६४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव।
    क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव।।३६५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द।
    कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द।।३६६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय।
    तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय।।३६७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख।
    कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख।।३६८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
    तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग।।३६९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान।
    बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान।।३७०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल।
    साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल।।३७१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग।
    गिरही दासातन करे, बैरागी अनुराग।।३७२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख।
    जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख।।३७३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं।
    तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं।।३७४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह।
    यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह।।३७५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय।
    कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय।।३७६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष।
    उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष।।३७७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय।
    दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय।।३७८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
    सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय।।३७९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग।
    कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग।।३८०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह।
    कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह।।३८१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय।
    कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय।।३८२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय।
    कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय।।३८३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल।
    काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल।।३८४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान।
    काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान।।३८५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव।
    मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत।।३८६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय।
    कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय।।३८७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह।
    पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह।।३८८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय।
    संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए।।३८९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय।
    जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय।।३९०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय।
    कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय।।३९१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय।
    ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय।।३९२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय।
    जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय।।३९३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय।
    विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय।।३९४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात।
    गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात।।३९५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज।
    तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज।।३९६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ।
    ओछी संगत नीच की, सरि पर पाड़ी बाट।।३९७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति।
    अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति।।३९८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग।
    कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग।।३९९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग।
    लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग।।४००।।

    — संत कबीर दास साहेब