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संत कबीर के दोहे संग्रह - 701 to 800

  • भक्ति भेष बहु अन्‍तरा, जैसे धरनि अकाश।
    भक्‍त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश।।७०१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय।
    नाता तोड़े गुरु भजै, भक्ति कहावे सोय।।७०२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज दंभ विचार।
    उदर भरन के कारन, जन्‍म गंवाये सार।।७०३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भाव बिना नहीं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव।
    भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव।।७०४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय।
    कहैं कबीर सतगुरु मिले, आवागमन निशाय।।७०५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • विषय त्‍याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान।
    सुखदायी सब जीव सों, यही भक्ति परमान।।७०६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति पदारथ तब मिले, जब गुरु होय सहाय।
    प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय।।७०७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म।
    कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म।।७०८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति महल बहु ऊंच है, दूरहि ते दरशाय।
    जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय।।७०९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति की यह रीति है, बंधे करे जो भाव।
    परमारथ के कारने, यह तन रहो कि जाव।।७१०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति बिना नहिं निस्‍तरै, लाख करै जो कोय।
    शब्‍द सनेही ह्वै रहे, घर को पहुंचे सोय।।७११।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय।
    भक्ति जु न्‍यारी भेष से, यह जानै सब कोय।।७१२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति-बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्‍त।
    ऊंच नीच घर अवतरै, होय सन्‍त का सन्‍त।।७१३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • देखा देखी भक्ति का, कबहुं न चढसी रंग।
    विपत्त‍ि पड़े यो छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग।।७१४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आरत है गुरु भक्ति करु, सब कारज सिध होय।
    करम जाल भौजाल में, भक्‍त फंसे नहि कोय।।७१५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम।
    सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम।।७१६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्‍त हरषाय।
    और न कोई चढि सकै, निज मन समझो आय।।७१७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति सोई जो भाव सों, इक मन चित को राख।
    सांच शील सो खेलिए, मैं तें दोऊ नाख।।७१८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति निसैनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय।
    जिन जिन मन आलस दिया, जनम जनम पछिताय।।७१९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति पंथ बहु कठिन है, रती न चालै खोट।
    निराधार का खेल है, अधर थार की चोट।।७२०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोइ लै जाय।
    कहैं कबीर कछु भेद नहिं, कहां रंक कहं राय।।७२१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार।
    धूवां का सा धौरहरा, बिनसत लगे न बार।।७२२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाय।
    मन तो मैंगल होय रहा, कैसे आवै जाय।।७२३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • टोटे में भक्ति करैं, ताका नाम सपूत।
    मायाधारी मसखरैं, केते गये अऊत।।७२४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति-भक्ति सब कोई कहै, भक्ति न जाने भेव।
    परण भक्ति जब मिलै, कृपा करै गुरुदेव।।७२५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर गुरु की भक्ति करु, तज विषया रस चौंज।
    बार-बार नहिं पाइये, मानुष जनम की मौज।।७२६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरण मारग सहज का, सतगुरु दिया बताय।
    सांस सांस सुमिरण करुं, इक दिन मिलसी आय।।७२७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजाये ढोल।
    श्‍वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल।।७२८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जाप मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि जाय।
    सुरति समानी शब्‍द में, ताहि काल न खाय।।७२९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बिना सांच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति न होय।
    पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय।।७३०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अपने पहरै जागिये, ना परि रहिये सोय।
    ना जानौ छिन एक में, किसका पहिरा होय।।७३१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लम्‍बा मारग दूर घर, बिकट पंथ बहु मार।
    कहो सन्‍त क्‍यों पाइये, दुर्लभ गुरु दीदार।।७३२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नाम जो रत्ती एक है, पाप जु रत्ती हजार।
    आध रत्ती घट संचरै, जारि करे सब छार।।७३३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माला सांस उसांस की, फेरै कोई निज दास।
    चौरासी भरमै नहीं, कटै करम की फांस।।७३४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • वाद विवादां मत करो, करु नित एक विचार।
    नाम सुमिर चित लायके, सब करनी में सार।।७३५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जो कोय सुमिरन अंग को, निशिवासर करै पाठ।
    कहैं कबीर सो संत जन, सन्‍धै औघट घाट।।७३६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सांस सफल सो जानिये, जो सुमिरन में जाय।
    और सांस यौं ही गये, करि बहुत उपाय।।७३७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लेने को गुरु नाम है, देने को अन्‍न दान।।
    तरने को आधीनता, बूड़न को अभिमान।।७३८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नाम रतन धन पाय के, गांठी बांध न खोल।
    नहिं पाटनहिं पार भी, नहिं गाहक नहिं मोल।।७३९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कहा भरोसा देह का, बिनसि जाय छिन मांहि।
    सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नांंहि।।७४०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जाकी पूंजी सांस है, छिन आवै छिन जाय।
    ताको ऐसा चाहिए, रहे नाम लौ लाय।।७४१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नाम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छान।
    कंचन मन्दिर जारि दे, जहां न सतगुरु ज्ञान।।७४२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर हरि के मिलन की, बात सुनो हम दोय।
    कै कछु हरि को नाम ले, कै कर ऊंचा होय।।७४३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नाम लिया जिन सब लिया, सब सास्‍त्रन को भेद।
    बिना नाम नरके गये, प‍ढ़‍ि गुनि चारों वेद।।७४४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माला फेरत जग भया, मिटा न मन का फेर।
    कर का मनका डारि दे, मनका मन का फेर।।७४५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जो कोय सुमिरन अंग को, पाठ करै मन लाय।
    भक्ति ज्ञान मन ऊपजै, कहैं कबीर समुझाय।।७४६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • क्रिया करै अंगरि गिनै, मन धावै चहुं ओर।
    जिहि फेरै सांई मिलै, सो भय काठ कठोर।।७४७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • तन थिर मन थिर बचन थिर, सुरति निरति थिर होय।
    कहैं कबीर उस दास को, कल्‍प न व्‍यापे कोय।।७४८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कोटि नाम संसार में, ताते मुक्ति न होय।
    आदि नाम जो गुप्‍त जप, बिरला जाने कोय।।७४९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम नाम जिन औषधि, सतगुरु दई बताय।
    औषधि खाय रु पथ रहै, ताकी बेदन जाय।।७५०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम नाम को सुम‍िरता, ऊधरे पतित अनेक।
    कबीर कबहू नहिं छाड़‍िये, राम नाम की टेक।।७५१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नीद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग।
    और रसायन छांडिके, राम रसायन लाग।।७५२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सोया सो निष्‍फल गया, जागा सो फल लेहि।
    साहिब हक्‍क न राखसी, जब मांग तब देहि।।७५३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जबहि नाम हिरद धरा, भया पाप का नाश।
    मानो चिनगा आग को, परो परान घास।।७५४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर क्षुधा है कूकरी, करत भजन में भंग।
    वाकूं टुकड़ा डारि के, सुमिरन करुं सुरंग।।७५५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बाहिर क्‍या दिखलाइये, अन्‍तर जपिये राम।
    कहा महोला खलक सों, पयों धनी सों काम।।७५६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
    आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल।।७५७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर हरि-हरि सुमिरि ले, प्राण जाहिंगे छूट।
    घर के प्‍यारे आदमी, चलते लेंगे लूट।।७५८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • निज सुख आतम राम है, दूजा दुख अपार।
    मनसा वाचा करमना, कबीर सुमिरन सार।।७५९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरण से सुख होत हैं, सुमिरण से दुख जाय।
    कहैं कबीर सुमिरण किये, सांई मांहि समाय।।७६०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरन सो मन लाइये, जैसे पानी मीन।
    प्राण तजे पल बीछुरे, सत्‍य कबीर कहि दीन।।७६१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरन सों मन जब लगै, ज्ञानाकुस दे सीस।
    कहैं कबीर डोलै नहीं, निश्‍चै बिस्‍वा बीस।।७६२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुख के माथे शिल परै, नाम हृदय से जाय।
    बलिहारी वा दुख की, पल पल नाम रटाय।।७६३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर सूता क्‍या करै, गुण सतगुरु का गाय।
    तेरे शिर पर जम खड़ा, खरच कदे का खाय।।७६४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर मुख सोई भला, जा मुख निकसै राम।
    जा मुख राम न नीकसै, ता मुख है किस काम।।७६५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जसे माया मन रमैं, तैसा राम रमाय।
    तारा मण्‍डल बेधि के, तब अमरापुर जाय।।७६६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • ज्ञान दीप परकाश करि, भीतर भवन जराय।
    तहां सुमिर गुरु नाम को, सहज समाधि लगाय।।७६७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय।
    तीरथ व्रत जप तप नहीं, सतगुरु चरण समाय।।७६८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जीना थोड़ा ही भला, हरि का सुमिरन होय।
    लाख बरस की जीवना, लेखै धरै न कोय।।७६९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम धाम।
    निहकामी सुमिरन करै, पावै अविचल राम।।७७०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछू न बोल।
    बाहर के पट देय के, अन्‍तर के पट खोल।।७७१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुरति समावे नाम में, जग से रहे उदास।
    कहैं कबीर गुरु चरण में, दढ़ राखो विश्‍वास।।७७२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरन सों मन लाइये, जैसे दीप पतंग।
    प्राण तजे छिन एक में, जरत न मोरै अंग।।७७३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुरति फंसी संसार में, ताते परिगो दूर।
    सुरति बांधि स्थिर करो, आठों पहर हजूर।।७७४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम जपत कुष्‍टी भला, चुइ चुइ पैर जु चाम।
    कंचन देह किस काम की, जो मुख नाहिं राम।।७७५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
    मनुवा तो चहुं दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नांहि।।७७६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • वाद करै सो जानिये, निगरे का वह काम।
    संतो को फुरसत नहीं, सुमिरन करते राम।।७७७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कोई न से जम बांचिया, राम बिना धरि खाय।
    जो जन बिरही राम के, ताको देखि डराय।।७७८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • ज्ञान कथे बकि बकि मरै, काहे करै उपाय।
    सतगुरु ने तो या कहा, सुमिरन करो बनाय।।७७९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरण की सुधि यौं करो, जैसे कामी काम।
    एक पलक बिसरै नहीं, निश दिन आठौ जाम।।७८०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरण की सुधि यौं करो, ज्‍यौं गागर पनिहारि।
    हालै डोलै सुरति में, कहैं कबीर विचारि।।७८१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • पूंजि मेरी राम है, जाते सदा निहाल।
    कबीर गरजे पुरुष बल, चोरी करै न काल।।७८२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जाकी गांठी राम है, ताके हैं सब सिद्धि।
    कर जोड़ी ठाढ़ी सबै, अष्‍ट सिद्धि नव निद्धि।।७८३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
    परसत ही कंचन भया, छूटा बन्‍धन मोह।।७८४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लूटि सके तो लूटि ले, राम नाम की लूट।
    फिर पाछे पछताहुगे, प्राण जाहिंगे छूट।।७८५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माला मेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय।
    गुरु चरनन चित राखिये, तो अमरापुर जोय।।७८६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर आपन राम कहि, औरन राम कहाय।
    जा मुख राम न नीसरै, ता मुख राम कहाय।।७८७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम नाम जाना नहीं, लागी मोटी खोर।
    काया हांड़ी काठ की, ना वह चढ़े बहोर।।७८८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अस औरसर नहिं पाइहो, धरो राम कड़‍िहार।
    भौ सागर तरि जाव जब, पलक न लागे बार।।७८९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर हरि के नाम में, सुरति रहै करतार।
    ता मुख से मोती झरे, हीरा अनंत अपार।।७९०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कोटि करम कटि पलक में, रंचन आवै राम।
    जुग अनेक जो पुन्‍य करु, नहिं राम बिनु ठाम।।७९१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
    जो सुख में सुमिरन कर, तो दुख काहे को होय।।७९२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सुमिरन तू घट में करै, घट ही में करतार।
    घट ही भीतर पाइये, सुरति शब्‍द भण्‍डार।।७९३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • थोड़ा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय।
    हरदी लग न फिटकरी, चोखा ही रंग होय।।७९४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • तू तू करता तू भया, तुझ में रहा समाय।
    तुझ मांहि मन मिलि रहा, अब कहुं अनत न जाय।।७९५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जहां प्रेम तह नेम नहीं, तहां न बुधि व्‍यवहार।
    प्रेम मगन जब मन भया, कौन गिनै तिथि वार।।७९६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह।
    जबही जलते बीछुरै, तबही त्‍यागै देह।।७९७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • प्रेम बिकाता मैं सुना, माथा साटै हाट।
    पूछत बिलम न कीजिये, तब छिन दीजै काट।।७९८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नाम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।
    कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै शीश कमाल।।७९९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • प्रेम पांवरी पहिरि के, धीरज कज्‍जल देह।
    शील सिंदूर भराय के, तब पिय का सुख लेय।।८००।।

    — संत कबीर दास साहेब